गुरुवार, 26 मई 2016

महान् अष्टावक्र

!!!---: महान् अष्टावक्र :---!!!
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उद्दालक ऋषि के पुत्र का नाम श्‍वेतकेतु था। उद्दालक ऋषि के एक शिष्य का नाम कहोड़ था। कहोड़ को सम्पूर्ण वेदों का ज्ञान देने के पश्‍चात् उद्दालक ऋषि ने उसके साथ अपनी रूपवती एवं गुणवती कन्या सुजाता का विवाह कर दिया। कुछ दिनों के बाद सुजाता गर्भवती हो गई। एक दिन कहोड़ वेदपाठ कर रहे थे तो गर्भवती सुजाता ने कहा कि आप वेद का गलत पाठ कर रहे हैं। यह सुनते ही कहोड़ क्रोधित होकर उसके गर्भ पर चोट की ।

हठात् एक दिन कहोड़ राजा जनक के दरबार में जा पहुँचे। वहाँ बंदी से शास्त्रार्थ में उनकी हार हो गई। हार हो जाने के फलस्वरूप उन्हें जेल में बन्दी बना दिया गया। इस घटना के बाद अष्टावक्र का जन्म हुआ। पिता के न होने के कारण वह अपने नाना उद्दालक को अपना पिता और अपने मामा श्‍वेतकेतु को अपना भाई समझता था। एक दिन जब वह उद्दालक की गोद में बैठा था तो श्‍वेतकेतु ने उसे अपने पिता की गोद से खींचते हुये कहा कि हट जा तू यहाँ से, यह तेरे पिता की गोद नहीं है। अष्टावक्र को यह बात अच्छी नहीं लगी और उन्होंने तत्काल अपनी माता के पास आकर अपने पिता के विषय में पूछताछ की। माता ने अष्टावक्र को सारी बातें सच-सच बता दीं।

अपनी माता की बातें सुनने के पश्‍चात् अष्टावक्र अपने मामा श्‍वेतकेतु के साथ बंदी से शास्त्रार्थ करने के लिये राजा जनक के यज्ञशाला में पहुँचे। वहाँ द्वारपालों ने उन्हें रोकते हुये कहा कि यज्ञशाला में बच्चों को जाने की आज्ञा नहीं है। इस पर अष्टावक्र बोले कि अरे द्वारपाल ! केवल बाल सफेद हो जाने या अवस्था अधिक हो जाने से कोई बड़ा आदमी नहीं बन जाता। जिसे वेदों का ज्ञान हो और जो बुद्धि में तेज हो वही वास्तव में बड़ा होता है। इतना कहकर वे राजा जनक की सभा में जा पहुँचे और बंदी को शास्त्रार्थ के लिये ललकारा।

राजा जनक ने अष्टावक्र की परीक्षा लेने के लिये पूछा कि वह पुरुष कौन है जो तीस अवयव, बारह अंश, चौबीस पर्व और तीन सौ साठ अक्षरों वाली वस्तु का ज्ञानी है? राजा जनक के प्रश्‍न को सुनते ही अष्टावक्र बोले कि राजन्! चौबीस पक्षों वाला, छः ऋतुओं वाला, बारह महीनों वाला तथा तीन सौ साठ दिनों वाला संवत्सर आपकी रक्षा करे।

अष्टावक्र का सही उत्तर सुनकर राजा जनक ने फिर प्रश्‍न किया कि वह कौन है जो सुप्तावस्था में भी अपनी आँख बन्द नहीं रखता? जन्म लेने के उपरान्त भी चलने में कौन असमर्थ रहता है? कौन हृदय विहीन है? और शीघ्रता से बढ़ने वाला कौन है? अष्टावक्र ने उत्तर दिया कि हे जनक! सुप्तावस्था में मछली अपनी आँखें बन्द नहीं रखती। जन्म लेने के उपरान्त भी अंडा चल नहीं सकता। पत्थर हृदयहीन होता है और वेग से बढ़ने वाली नदी होती है।

अष्टावक्र के उत्तरों को सुकर राजा जनक प्रसन्न हो गये और उन्हें बंदी के साथ शास्त्रार्थ की अनुमति प्रदान कर दी।

(1.) बंदी ने अष्टावक्र से कहा कि एक सूर्य सारे संसार को प्रकाशित करता है, देवराज इन्द्र एक ही वीर हैं तथा यमराज भी एक है। अष्टावक्र बोले कि इन्द्र और अग्निदेव दो देवता हैं। नारद तथा पर्वत दो देवर्षि हैं, अश्‍वनीकुमार भी दो ही हैं। रथ के दो पहिये होते हैं और पति-पत्नी दो सहचर होते हैं।

(2.) बंदी ने कहा कि संसार तीन प्रकार से जन्म धारण करता है। कर्मों का प्रतिपादन तीन वेद करते हैं। तीनों काल में यज्ञ होता है तथा तीन लोक और तीन ज्योतियाँ हैं। अष्टावक्र बोले कि आश्रम चार हैं, वर्ण चार हैं, दिशायें चार हैं और ओंकार, अकार, उकार तथा मकार से बना है । ये वाणी के प्रकार भी चार हैं।

(3.) बंदी ने कहा कि यज्ञ पाँच प्रकार का होता है, यज्ञ की अग्नि पाँच हैं, ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच हैं, पंच दिशाओं की अप्सरायें पाँच हैं, पवित्र नदियाँ पाँच हैं तथा पंक्‍ति छंद में पाँच पद होते हैं। अष्टावक्र बोले कि दक्षिणा में छः गौएँ देना उत्तम है, ऋतुएँ छः होती हैं, मन सहित इन्द्रयाँ छः हैं, कृतिकाएँ छः होती हैं और साधक भी छः ही होते हैं।

(4.) बंदी ने कहा कि पालतु पशु सात उत्तम होते हैं और वन्य पशु भी सात ही, सात उत्तम छंद हैं, सप्तर्षि सात हैं और वीणा में तार भी सात ही होते हैं। अष्टावक्र बोले कि आठ वसु हैं तथा यज्ञ के स्तम्भक कोण भी आठ होते हैं।

(5.) बंदी ने कहा कि पितृ यज्ञ में समिधा नौ छोड़ी जाती है, प्रकृति नौ प्रकार की होती है तथा बृहती छंद में अक्षर भी नौ ही होते हैं। अष्टावक्र बोले कि दिशाएँ दस हैं, तत्वज्ञ दस होते हैं, बच्चा दस माह में होता है (सामान्य रूप से कहा है) और दहाई में भी दस ही होता है।

(6.) बंदी ने कहा कि ग्यारह रुद्र हैं, यज्ञ में ग्यारह स्तम्भ होते हैं और पशुओं की ग्यारह इन्द्रियाँ होती हैं। अष्टावक्र बोले कि बारह आदित्य होते हैं बारह दिन का प्रकृति यज्ञ होता है, जगती छंद में बारह अक्षर होते हैं और वर्ष भी बारह मास का ही होता है।

(7.) बंदी ने कहा कि त्रयोदशी उत्तम होती है, पृथ्वी पर तेरह द्वीप हैं।...... इतना कहते कहते बंदी श्‍लोक की अगली पंक्ति भूल गये और चुप हो गये। इस पर अष्टावक्र ने श्‍लोक को पूरा करते हुये कहा कि वेदों में तेरह अक्षर वाले छंद अति छंद कहलाते हैं और अग्नि, वायु तथा सूर्य तीनों तेरह दिन वाले यज्ञ में व्याप्त होते हैं।

इस प्रकार शास्त्रार्थ में बंदी की हार हो जाने पर अष्टावक्र ने कहा कि राजन् ! यह हार गया है, अत एव इसे भी जेल में डाल दिया जाये। तब बंदी बोला कि हे महाराज! मैं वरुण का पुत्र हूँ और मैंने सारे हारे हुये ब्राह्मणों को अपने पिता के पास भेज दिया है। मैं अभी उन सबको आपके समक्ष उपस्थित करता हूँ। बंदी के इतना कहते ही बंदी से शास्त्रार्थ में हार जाने के बाद जेल में डाले गये सार ब्राह्मण जनक की सभा में आ गये, जिनमें अष्टावक्र के पिता कहोड़ भी थे।



अष्टावक्र ने अपने पिता के चरणस्पर्श किये। पिता ने उसे आशीर्वाद दिया ।
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बुधवार, 25 मई 2016

शक्तिमहिमा

!!!---: शक्तिमहिमा :---!!!
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अस्मिन् संसारे शक्तेः महिमा सर्वत्र दृश्यते । इयं शक्तिः देवेषु, दानवेषु, मानवेषु, पशुषु, पक्षिषु, ग्रहनक्षत्रेषु च सर्वत्र वर्तते ।

शक्तिं विना न सिद्ध्यति किमपि कार्यम् । पश्यतु भवान् सूर्यम् आकाशे, अयं रविः शक्त्या एव भासते तपति च । चन्द्रः अपि शक्त्या एव तमो हरति (निवारयति), लोकानां मनांसि आनन्दयति च । शक्ति-प्रभावादेव अग्निः दहति, वायुः वाति, जलं च वहति । किं बहुना, इयं पृथिवी अपि शक्त्या एव सर्वं धारयति ।

यत्र शक्तिः तत्रैव जीवनम् । यत्र नास्ति शक्तिः न तत्र जीवनम् । अग्नेः शक्तिः दाहकता अस्ति । यावत् तिष्ठति तत्र दाहकता तावत् एव अग्निं अग्निरिति मन्यते । अन्यथा असौ भस्म इति कथ्यते । पिपीलिकाः अपि तदुपरि सुखेन चलितुं शक्नुवन्ति ।

इदं जगत् निरन्तरं गतिशीलम् अस्ति । सूर्यः चलति, चन्द्रः चलति, ग्रहाः चलन्ति, नक्षत्राणि चलन्ति । देवाः, मनुष्याः, पशवः, पक्षिणः, जलचराश्च निरन्तरं चलन्ति । सर्वेषु गतिः वर्तते । इयं गतिः, इयं क्रिया, इयं स्थितिः--इत्येतत् सर्वं न भवितुमर्हति शक्तिं विना । अतः स्पष्टं वक्तुं शक्यते यत् अयं संसारः शक्तेः एव विलासः ।

इयं शक्तिः बहुविधा वर्तते---शरीरशक्तिः, बुद्धिशक्तिः, धनशक्तिः, जनशक्तिः, सैन्यशक्तिः, राष्ट्रशक्तिश्च । आसु बुद्धिशक्तिरेव श्रेष्ठा । यस्य शारीरिकं बलं स्यात् परं बुद्धिः न स्यात् तस्य तद् बलं व्यर्थम् एव । बलवान् अपि गजः बुद्धिमता मनुष्येण तद् वशम् आनीयते । ऊयानकः अपि सिंहः बुद्धिबलात् पञ्जरबद्धः क्रियते । बुद्धिं विना सिद्धिः न मिलति । बुद्ध्या एव विद्या प्राप्यते, बुद्ध्या एव यन्त्राणि निर्मीयन्ते ।

यद्यपि "सङ्घे शक्तिः कलौ युगे" इति कथितं, तथापि बुद्धेः महती आवश्यकता । अत एव कस्यापि संघस्य सञ्चालनं बुद्धिमन्तं नेतारम् अपेक्षते । परं बुद्धिस्तु सा एव हितकारिणी या सन्मार्गम् अनुसरति । इयमेव जीवनस्य उपलब्धिः ।
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रविवार, 22 मई 2016

शिवाः आपः सन्तु

!!!---: शिवाः आपः सन्तु :---!!!
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जीवने अन्नापेक्षया जलस्य अधिकं महत्त्वमस्ति । अत एव जलस्यापरं नाम "जीवनम्" इति संगच्छते ।

जलं यथा व्यक्तेः जीवने अनिवार्यं भवति तथैव समाजस्य राष्ट्रस्य च जीवनेSपि । अस्माकं देशः कृषिप्रधानः अस्ति । देशस्यौद्योगिकः, आर्थिकः, भौतिकः च विकासः कृषिमवलम्ब्यैव तिष्ठति । कृषेः विकासाय जलमावश्यकम् । वृष्टिजलेन, नदीजलेन, प्रपातजलेन, कूपजलेन, तडागजलेन वा कृषेः सेचनं भवति ।

ये च देशाः नदीजलेन सस्यसम्पन्नाः भवन्ति ते "नदीमातृकाः" सन्ति । नद्यः स्नानाय, पानाय, सस्यसेचनाय च जलं वितरन्ति । जनाः नदीषु तत्र तत्र सेतुं बद्ध्वा जलसञ्चयं कृत्वा कुल्याद्वारा जलं सुदूरं नयन्ति । तेन च क्षेत्राणि सिञ्चन्ति । ये च देशाः कृषिकार्याय वृष्टिजलमपेक्षन्ते ते "देवमातृकाः" भवन्ति ।

नद्योSपि वृष्टिमवलम्बन्ते । "काले वर्षतु पर्जन्यः पृथिवी सस्यशालिनी" इति वृष्टेः महत्त्वं सूचयति । न हि शक्नुवन्ति जलम् अन्तरा तृणादीन्यपि जीवितुम् । तृणादीनि च धेन्वादीनां पशूनामाहाराः भवन्ति । पशवो मानवजीवनस्य मुख्यानि अङ्गानि सन्ति ।

प्रायेण नदीतीरेष्वेव महानगराणि विकासमुपगच्छन्ति । नानाप्रकाराः उद्योगाः अपि तत्रैव स्थाप्यन्ते विकसन्ति च । जजलमार्गेण सञ्चारस्य सौकर्यमपि मानवजीवनं सुखमयं करोति । अत एव नदीतटेषु जनानामावासस्थानानि अधिकानि दृश्यन्ते ।

सर्वप्रकाराणाम् उद्योगानां विकासः विद्युतः शक्तिम् अपेक्षते । तां विना कोSपि उद्योगः अधिकोत्पादनक्षमो लाभप्रदो वा न भवति । प्रकाशाय तस्याः उपयोगः सर्वविदितः । सा च शक्तिः स्वाभाविकैः कृतकैः वा जलप्रपातैः निरायासम् उत्पाद्यते । अतः नदीजलं विद्युदुत्पादनेSपि सहायकं भवति ।

एवं च नद्यः राष्ट्रजीवनं सर्वसम्पन्नं कुर्वन्ति । परन्तु कदाचित् इमाः भीषणाकारं धारयन्त्यः जलप्रवाहैः देशान् प्लावन्त्यः विनाशहेतवोSपि भवन्ति । अत एव भारतीयाः निग्रहे अनुग्रहे च समर्थतया इमाः देवताः मन्यन्ते ।



पुरातनाः महर्षयस्तु जलस्य महत्त्वं सम्यक् ज्ञातवन्तः आसन् । अत एव ते "शिवाः आपः भवन्तु" इति प्रार्थयन्त । जलानि सर्वदा मङ्गलरूपाणि भवन्तु, मा कदापि नाशकानि भवन्तु इति मन्त्रस्याशयः ।
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