!!!---: ज्ञान अभ्यास से ही होता है, तप से नहीं :---!!!
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प्राचीन काल में यवक्रीत नाम का एक युवक था, जो अभ्यास और परिश्रम को छोडकर तप में विश्वास करता था । इनके पिता प्रसिद्ध ऋषि भरद्वाज थे । "यवक्रीत" शब्द का अर्थ होता है--"यव (जौ) देकर खरीदा गया ।" इसका आश्रम स्थूलशिरस् ऋषि के आश्रम के पास था ।ज्ञान केवल अभ्यास और परिश्रम से ही प्राप्त हो सकता है, बाह्य आडम्बर और तप करके नहीं । इस विषय के प्रतिपादन के लिए यह कथा महाभारत में आई है । इसे आप भी पढे और अपने जीवन में इनसे प्रेरणा लें ।
ऋषि भारद्वाज के पुत्र यवक्रीत को अपनी विद्वत्ता पर काफी अभिमान था। वह सोचते थे कि अगर उन्होंने थोड़ी और विद्वत्ता अर्जित कर ली तो लोग उन्हें महान् विद्वान् और ऋषि मानने लग जाएँगे । हो जाएगा।
उन्होंने इसके लिए तपस्या आरंभ कर दी। उन्हें कठोर तपस्या करते देख उनके एक शुभचिंतक आकर बोले- "यवक्रीत ! क्यों इस तरह कठोर तपस्या करके अपने शरीर को पीड़ा पहुँचा रहे हो ?"
यवक्रीत ने कहा- "स्वामी जी ! मैं चाहता हूँ कि मुझे संपूर्ण वेदों, उपनिषदों तथा शास्त्रों का ज्ञान बिना अध्ययन किए ही सुलभता से हो जाए ।"
इस पर शुभचिंतक ने कहा- "किंतु ज्ञान के लिए तो गुरु, परिश्रम और अभ्यास की आवश्यकता होती है।"
इस पर यवक्रीत हँस पड़े। शुभचिंतक बोले- "उल्टी गंगा न बहाओ यवक्रीत। उचित होगा कि किसी योग्य आचार्य के पास जाकर अध्ययन करो। परिश्रम के माध्यम से प्राप्त किया गया ज्ञान ही फलदायक होता है।" इस पर यवक्रीत ने ध्यान नहीं दिया और तपस्या में लीन रहे।
एक दिन वह स्नान करने के लिए गंगा तट पर पहुँचे। वहाँ उसने देखा कि एक वृद्ध मुट्ठी में रेत भर-भर कर गंगा में डाल रहा है । यवक्रीत ने इसका कारण पूछा तो वृद्ध ने जवाब दिया-"पुत्र ! मैं तैरकर उस पार जाने में समर्थ नहीं हूँ, इसलिए रेत का बाँध तैयार करने में लगा हूँ। इस पर यवक्रीत हंस पड़े।"
उन्होंने कहा-"बेकार का परिश्रम कर अपने को मत थकाओ। बहती हुई गंगा की धारा में एक मुट्ठी बालू द्वारा बाँध का निर्माण एक मूर्खतापूर्ण और हास्यास्पद प्रयोग है जो कभी भी पूर्ण नहीं हो सकता।"
वृद्ध मुस्कराते हुए बोले-"तुम्हें यह परिश्रम बेकार लग रहा है ? यदि बिना गुरु की सहायता, परिश्रम व अभ्यास के समस्त वेदों व शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करने का तुम्हारा प्रयत्न सफल हो सकता है, तो यह काम भी संभव है।"
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