रविवार, 4 जून 2017

कवि कल्हण और राजतरंगिणी का परिचय

!!!--: कल्हण और राजतरंगिणी :---!!!
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संस्कृत के ऐतिहासिक काव्यों में सर्वाधिक दीर्घकाल के इतिहास पर अपेक्षाकृत प्रामाणिक सूचना देने के कारण राजतरंगिणी का स्थान अग्रगण्य है । इसमें काश्मीर राज्य का इतिहास सुदूरवर्ती प्राचीनकाल से लेकर कल्हण के अपने समय तक (११५० ई.) प्रस्तुत है । कल्हण ने बहुत प्रयत्न से इतने लम्बे युग के विषय में सूचनाओं रा संकलन करके उन्हें प्रस्तुत किया है । उन्होंने अपना जीवनवृत्त बिल्हण के समान विस्तार से नहीं दिया है, किन्तु इस विषय में कुछ महत्त्वपूर्ण बातें कही हैं ।

कल्हण के पिता चणपक (चम्पक) काश्मीर के राजा हर्षदेव (१०८९--११०१) के एक विश्वसनीय अनुजीवी थे । वे आदर्श स्वामीभक्त थे , जो दुःख-सुख में राजा के साथ सदैव रहते थे । हर्षदेव की हत्या के बाद उन्होंने राज-कार्य से संन्यास ले लिया था । कल्हण ने अपने पितृव्य (चाचा) कनक का भी उल्लेख किया है, जिसने राजा हर्षदेव को प्रसन्न करने के लिए संगीत की शिक्षा ली थी । कल्हण का परम्परागत घर परिहासपुर में था । वहाँ अवस्थित एक बुद्धमूर्ति को हर्ष अपने धर्मोन्माद में आकर तोडना चाहता था, तब कनक ने ही उसे ऐसा करने से रोका था । कल्हण अपने पिता के समान शिवभक्त थे, किन्तु बौद्धमत में भी श्रद्धा रखते थे । उनके वर्णनों से लगता है कि ब्राह्मण धर्म तथा बौद्धधर्म के बीच सौमनस्य वर्त्तमान था । क्षेमेन्द्र उनके पूर्व ही बुद्ध को विष्णु के अवतार में वर्णित कर चुके थे ।

कल्हण एक सुसंस्कृत शिक्षित कश्मीरी ब्राह्मण कवि थे जिसके राजपरिवारों में अच्छे सम्बन्ध थे। कश्मीर निवासी कल्हण, जिनका वास्तविक नाम कल्याण था, संस्कृत के श्रेष्ठ ऐतिहासिक महाकाव्यकार माने जाते हैं। उनका जन्म ११०० ई. के आस-पास हुआ था । उन्होंने काश्मीर की राजनीति से अलग रहकर अलकदत्त के आग्रह पर काश्मीर के विकीर्ण ऐतिहासिक लेखों को संकलित करके राजतरंगिणी के रूप में संकलित किया । इसकी रचना सुस्सल के पुत्र जयसिंह के राज्यकाल (११२८०११५९) में की हुई थी, फिर भी कवि ने जयसिंह के प्रति कोई प्रशंसा नहीं लिखी ।

कल्हण कश्मीरी इतिहासकार तथा विश्वविख्यात ग्रंथ राजतरङ्गिनी (११४८--५० ई.) के रचयिता थे।

प्रसिद्ध कृति 'राजतरंगिणी'
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कल्हण ने 'राजतरंगिणी' नामक महान महाकाव्य की रचना की। इनकी प्रसिद्ध पुस्तक 'राजतरंगिणी' में, जिसकी रचना ११४८ से ११५० ई. के बीच हुई, कश्मीर के आरंभ से लेकर रचना के समय तक का क्रमबद्ध इतिहास अंकित है। यह कश्मीर का राजनीतिक उथलपुथल का काल था। आरंभिक भाग में यद्यपि पुराणों के ढंग का विवरण अधिक मिलता है, परंतु बाद की अवधि का विवरण पूरी ऐतिहासिक ईमानदारी से दिया गया है। अपने ग्रंथ के आरंभ में कल्हण ने लिखा है-

'वही श्रेष्ठ कवि प्रशंसा का अधिकारी है जिसके शब्द एक न्यायाधीश के पादक्य की भांति अतीत का चित्रण करने में घृणा अथवा प्रेम की भावना से मुक्त होते हैं।'

अपने ग्रंथ में कल्हण ने इस आदर्श को सदा ध्यान में रखा है इसलिए कश्मीर के ही नहीं, तत्काल भारतीय इतिहास के संबंध में भी राजतरंगिणी में बड़ी महत्त्वपूर्ण और प्रमाणिक सामग्री प्राप्त होती है। राजतंरगिनी के उद्वरण अधिकतर इतिहासकारों ने इस्तेमाल किये है । कवि-कल्पना, रस, अलङ्कार तथा भावों का सुन्दर समन्वय राजतरंगिणी की विशिष्टता है । निम्नांकित पद्य में करुण-भाव की मार्मिक अभिव्यक्ति कल्हण ने की है--- "क्षुत्क्षामस्तनयो वधूः पर-गृह-प्रेष्यावसन्नः सुहृत् दुग्धा गौरशनाद्यभाव-विवशा हम्बारवोद्गारिणी । निष्पथ्यौ पितरावदूरमरणौ स्वामी द्विषत्रिर्जितो दृष्टो येन परं न तस्य निरये प्राप्तव्यमस्त्यप्रियम् ।." अर्थः----जिसने भुख से व्याकुल पुत्र को , परगृह में सेवारत पत्नी को, आपत्ति में पडे हुए मित्र को, दुही जाने के बाद चारे के अभाव में रँभाती हुए गौ को, पथ्य के अभाव में मरणोन्मुख माता-पिता को तथा शत्रु द्वारा जीत लिए अपने स्वामी को देख लिया है, उसे नरक में भी इससे अधिक अप्रिय दृश्य देखने को क्या मिलेगा ? इस प्रकार काश्मीर के ऊथल-पुथल भरे इतिहास और जनता की दुर्दशा का चित्रण इस पद्य का प्रतिपाद्य है ।

परिचय
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कल्हण (११५० ई.) कश्मीर के महाराज हर्षदेव (१०६८-११०१) के महामात्य चंपक के पुत्र और संगीतमर्मज्ञ कनक के अग्रज थे। मंखक ने श्रीकंठचरित (११२८-४४) (सर्ग २५, श्लोक ७८-२०) में कल्याण नाम के इसी कवि की प्रौढ़ता को सराहा है और इसे महामंत्री अलकदत्त के प्रश्रय में "बहुकथाकेलिपरिश्रमनिरंकुश' घोषित किया है।

वास्तव में कल्हण एक विलक्षण महाकवि था। उसकी "सरस्वती' रागद्वेष से अलेप रहकर "भूतार्थचित्रण' के साथ ही साथ "रम्यनिर्माण' में भी निपुण थी; तभी तो बीते हुए काल को "प्रत्यक्ष' बनाने में उसे सरस सफलता मिली है। "दुष्ट वैदुष्य' से बचने का उसने सुरुचिपूर्ण प्रयत्न किया है और "कविकर्म' के सहज गौरव को प्रणाम करते हुए उसने अपनी प्रतिभा का सचेत उपयोग किया है। इतिहास और काव्य के संगम पर उसने अपने "प्रबंध' को शांत रस का "मूर्धाभिषेक' दिया है और अपने पाठाकों को राजतरंगिणी की अमंद रसधारा का आस्वादन करने को आमंत्रित किया है।

सच तो यह है कि कल्हण ने "इतिहास' (इति+ह+आस) को काव्य की विषयवस्तु बनाकर भारतीय साहित्य को एक नई विधा प्रदान की है और राष्ट्रजीवन के व्यापक विस्तार के साथ-साथ मानव प्रकृति की गहराइयों को भी छू लिया है। शांत रस के असीम पारावार में श्रृंगार, वीर, रौद्र, अद्भुत, वीभत्स और करुण आदि सभी रस हिलोरें लेते दिखाए गए हैं; और बीच-बीच में हास्य और व्यंग के जो छीटे उड़ते रहते हैं वे भी बहुत महत्वपूर्ण हैं। क्षेमेंद्र के बाद कल्हण ने ही तो सामयिक समाज पर व्यंग कसकर संस्कृत साहित्य की एक भारी कमी को पूरा करने में योग दिया है।

इतिहासकार के नाते नि:संदेह कल्हण की अपनी सीमाएँ हैं, विशेषकर प्रारंभिक वंशावलियों और कालगणना के बारे में। उसके साधन भी तो सीमित थे। पर खेद की बात है कि अपनी विवशता से सतर्क रहने के बजाए उसने कुछ लोकप्रचलित अंधविश्वासों को अत्युक्तियुक्त मान्यता दी, जैसे रणादित्य के ३०० वर्ष लंबे शासन की उपहास्य अनुश्रुति को। किंतु यह भी कम सराहनीय नहीं कि चौथे तरंग के अंतिम भाग से अपने समय तक अर्थात ३८८६ लौकिक शक (८१३-१४ ई.) से ४२२५ लौ॰ शक (११४६०५० ई.) तक उसकी कालगणना और इतिहास सामग्री विस्तृत और विश्वसनीय है। अपने पूर्ववर्ती "सूरियों' के ११ ग्रंथों और "नीलमत' (पुराण) के अतिरिक्त उसने प्राचीन राजाओं के "प्रतिष्ठाशासन', "वास्तुशासन', "प्रशस्तिपट्ट', "शास्त्र' (लेख आदि), भग्नावशेष, सिक्के और लोकश्रुति आदि पुरातात्विक साधनों से यथेष्ट लाभ उठाने का गवेषणात्मक प्रयास किया है; और सबसे बड़ी बात यह कि अपने युग की अवस्थाओं और व्यवस्थाओं का निकट से अध्ययन करते हुए भी वह अपनी टीका टिप्पणी में बेलाग है। और तो और, अपने आश्रयदाता महाराज जयसिंह के गुण-दोष-चित्रण (तरंग ८, श्लोक १५५०) में भी उसने अनुपम तटस्थता का परिचय दिया है। उसी के शब्दों में "पूर्वापरानुसंधान' और "अनीर्ष्य (अर्थात् ईर्ष्याशून्य) विवेक' के बिना गुणदोष का निर्णय समीचीन नहीं हो सकता।

संभवत: इसीलिए कल्हण ने केवल राजनीतिक रूपरेखा न खींचकर सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवेश की झलकियाँ भी प्रस्तुत की हैं; और चरित्रचित्रण में सरस विवेक से काम लिया है। मातृगुप्त और प्रवरसेन, नरेन्द्रप्रभा और प्रतापादित्य तथा अनंगलेखा, खंख और दुर्लभवर्धन (तरंग ३) अथवा चंद्रापीड और चमार (तरंग ४) के प्रसंगों में मानव मनोविज्ञान के मनोरम चित्र झिलमिलाते हैं। इसके अतिरिक्त बाढ़, आग, अकाल और महामारी आदि विभीषिकाओं तथा धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक उपद्रवों में मानव स्वभाव की उज्वल प्रगतियों और कुत्सित प्रवृत्तियों के साभिप्राय संकेत भी मिलते हैं। राजतरंगिणी भारतीय साहित्य में एकमात्र ऐसा ग्रन्थ है, जिसे भले ही काव्यात्मक रूप दिया गया हो, किन्तु वह इतिहास की दृष्टि से ही लिखी गई है । भारत में इतिहास को नैतिक शिक्षा का ही साधन माना गया है ।

कल्हण का दृष्ठिकोण बहुत उदार था; माहेश्वर (ब्राह्मण) होते हुए भी उसने बौद्ध दर्शन की उदात्त परंपराओं को सराहा है और पाखंडी (शैव) तांत्रिकों को आड़े हाथों लिया है। सच्चे देशभक्त की तरह उसने अपने देशवासियों की बुराइयों पर से पर्दा सरका दिया है और एक सच्चे सहृदय की तरह देशकाल की सीमाओं से ऊपर उठकर, सत्य, शिव और सुंदर का अभिनंदन तथा प्रतिपादन किया है। कल्हण ने अपने को कवि माना है । इस महाकाव्य के आरम्भ में उन्होंने कहा है कि कवि की वाणी अमृतरस का भी तिरस्कार करती है । अमृत को केवल पीने वाला ही अमर होता है, जबकि कवि की वाणी से स्वयं कवि और वर्णनीय पात्र दोनों अमर बन जाते हैं--- "वन्द्य कोSपि सुधास्यन्दास्कन्दी स सुकवेर्गुणः । येनायाति यशःकाये स्थैर्यं स्वस्य परस्य च ।।" (१.३) उन्होंने अपने युग के राजाओं के परस्पर संघर्ष को देखा था, अव्यवहित पूर्ववर्ती राजा हर्ष के दुष्कर्मों और अत्याचारों के विषय में सुना था । इससे उन्हें विरक्ति हो गई और उन्होंने शान्तरस को काव्य में मुख्य स्थान दिया । काव्य को अनावश्यक सौन्दर्य से भरना उन्हें पसन्द नहीं था । इसीलिए उनकी शैली वैदर्भी शैली में वर्णनपरक अनुष्टुप् छन्द का प्रयोग बहुल रूप में हैं । गति तथा प्रवाह से सम्पन् भाषा-शैली का प्रयोग कल्हण की मुख्य विशिष्टता है ।
समूचे प्राचीन भारतीय इतिहास में जो एक मात्र वैज्ञानिक इतिहास प्रस्तुत करने का प्रयत्न हुआ है वह है कल्हण की राजतरंगिणी। अपनी कुछ कमजोरियों के बावजूद कल्हण का दृष्टिकोण प्राय: आज के इतिहासकार जैसा है। स्वयं तो वह समसामयिक स्थानीय पूर्वाग्रहों के ऊपर उठ ही गया है, साथ ही घटनाओं के वर्णन में अत्यंत समीचीन अनुपात रखा है। विवरण की संक्षिप्तता सराहनीय है। राजतरंगिणी की परम्परा ================= कल्हण की राजतरंगिणी की परम्परा को कुछ कवियों ने आगे बढाकर इसी नाम से ग्रन्थ लिखे । तदनुसार १५ वीं--१६ वीं शताब्दी तक का काश्मीर का इतिहास लेखन प्रक्रान्त रहा । जोनराज ने ( मृत्यु--१४५९ई.) काश्मीर के राजाओं का इतिहास कल्हण की शैली में ही सुल्तान जैनुल आब्दीन के शासनकाल (१४१७--६७ ई.) तक पहुँचाया । लेखक की मृत्यु हो जाने के कारण इसे उसके शिष्य श्रीवर ने "जैनराजतरंगिणी" के रूप में १४५९ ई. से १४८६ ई. तक का इतिहास लिखा । ये दोनों ग्रन्थ कल्हण की रचना से निम्न कोटि के हैं । पुनः प्राज्यभट्ट और उसके शिष्य शुक ने "राजावलीपताका" नामक ग्रन्थ लिखा , जिसमें अकबर द्वारा काश्मीर को अपने राज्य में मिला लेने तक की घटनाओं का वर्णन है---(१४८६---१५८६ ई.) । विशेष सूचना--- कल्हण की राजतरंगिणी के प्रथम संस्करण (कोलकाता १८३५ ई.) के साथ ये सभी ऐतिहासिक ग्रन्थ प्रकाशित हुए थे । इसका सुन्दर संस्करण "विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध संस्थान" होशियारपुर पंजाब से कई खण्डों में प्रकाशित हुआ है ।
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