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महाभारत का युद्ध जब प्रारंभ होने वाला था तो युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य आदि को नमन किया और युद्ध की आज्ञा मांगी । इससे वे बहुत खुश हुए और उन्होंने उन्हें विजय का आशीर्वाद दिया और यह कहा :---
"अर्थस्य पुरुषो दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित् ।
इति सत्यं महाराज ! बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैः ।।"
(महाभारत ६/४१/३६)
हे युधिष्ठिर ! मनुष्य अर्थ का दास है, अर्थ किसी का दास नहीं । इसीलिए तुम्हें ठीक समझते हुए भी मैं दुर्योधन का पक्ष लेकर लड़ रहा हूं, क्योंकि मेरी सब आवश्यकताएं पूरी करके कौरवों ने मुझे अर्थ से बांध लिया है ।
अतः इस शरीर पर दुर्योधन का अधिकार है, किंतु आत्मपक्ष तो सत्य और न्याय की डोर है, इसलिए मैं तुम्हारी विजय की कामना करता हूं ।
इसके बाद युधिष्ठिर द्रोणाचार्य के पास गए और उन्होंने भी हृदय खोलकर विजय का आशीर्वाद दिया । फिर कृपाचार्य के पास गये । उन्होंने भी वही आशीर्वाद दिया ।
पांडवों को दिए हुए आशीर्वचन फले और वे विजय हुये ।
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