रविवार, 31 जनवरी 2016

सिंहकारकाणां कथा

कस्मिंश्चित् नगरे चत्वारः पुरुषाः मित्रभावेन वसन्ति स्म । तेषु त्रयः शास्त्रेषु निपुणाः आसन्, किन्तु ते व्यवहारशून्याः आसन् । चतुर्थः व्यवहारनिपुणः किन्तु शास्त्राणां ज्ञानेन रहित एव आसीत् ।

एकदा ते सर्वे मिलित्वा अचिन्तयन्---"अस्माकं विद्यायाः कः लाभः यदि देशान्तरं गत्वा अस्य उपार्जनं न क्रियते । अतः वयं धन-अर्जनार्थं पूर्वदेशं गच्छामः" इति ।

एवं निश्चित्य ते सर्वे पुरुषाः पूर्वदेशं प्रति अचलन् । मार्गे एकस्मिन् दुर्गमवने ते कस्यचित् मृतस्य सिंहस्य अस्थीनि अपश्यन् । तानि अस्थीनि दृष्ट्वा एकः अवदत्---"अयं कश्चित् जीवः मृतः तिष्ठति । अहं निजविद्यायाः प्रभावेण अस्थिनां सञ्चयं करोमि ।" एवमुक्त्वा स सत्वरं तस्य मृत-जीवस्य अस्थि-सञ्चयमकरोत् ।
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तदा द्वितीयोवदत्---"अहं निजविद्यायाः प्रभावेण अस्मिन् चर्मणः मांसस्य रुधिरस्य च संयोजनं करोमि ।" इत्युक्त्वा सोSपि निजशास्त्रज्ञानस्य प्रभावेण सत्वरं तथाSकरोत् ।

तदनन्तरं तृतीयोSवदत्---"अहं निजविद्यायाः प्रभावेण अस्मिन् शरीरे जीवनस्य सञ्चारं करोमि" इति । स यदा तस्मिन् शरीरे जीवनस्य सञ्चारं कर्तुम् उद्यतोSभवत् तदा चतुर्थोSवदत्---"भ्रातः ! तिष्ठतु भवान् । एषः सिंहः क्रियते । यदि त्वम् एनम् सजीवं करोषि तदा अयम् अस्मान् हत्वा खादिष्यति । अतः एवं न कुरु ।"

तस्य बुद्धिमतः वचनं श्रुत्वा तृतीयः पुनरवदत्--"धिङ् मूर्खः !!! अहं निजविद्यां विफलां न करिष्यामि" इति ।

एतत् श्रुत्वा चतुर्थः पुनरवदत्--"तर्हि प्रतीक्षां कुरु, यावदहं वृक्षम् आरोहामि ।"

यदा चतुर्थः पुरुषः वृक्षमारोहत्, तदा तृतीयः शीघ्रं तं सिंहं सजीवमकरोत् । जीवनं प्राप्य स सिंहः सत्वरम् उत्थाय तान् त्रीनेव अहन् । चतुर्थश्च वृक्षाद् अवतीर्य निजगृहम् अगच्छत् । अत एव नीतिकाराः कथयन्ति---

"वरं बुद्धिर्न सा विद्या विद्याया बुद्धिरुत्तमा ।
बुद्धिहीना विनश्यन्ति यथा ते सिंहकारकाः ।।"

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सोमवार, 25 जनवरी 2016

कथा-मञ्जरी

संसार में तीन प्रकार के मनुष्य पाए जाते है---
इस पर एक कहानी सुनिए----
बादशाह अकबर एक बार अपनी राजसभा में बैठे थे । बहुत बडे-बडे ज्ञानी और विद्वान् उनके मन्त्री थे । उन्हीं में से एक बीरबल थे । अकबर सबसे अधिक बीरबल का सम्मान करते थे । इस बात से दूसरे मन्त्रिगण चिढते थे । एक बार बीरबल की अनुपस्थिति में दूसरे मन्त्रियों ने बादशाह से शिकायत की कि आप बीरबल का बहुत सम्मान करते हैं, हमारा कम । बीरबल में ऐसी क्या विशेषता है जो हममे नहीं ।

राजा ने देखा कि ये लोग ईर्ष्या करते हैं । वे बोले---"अच्छी बात है । बीरबल हमारे प्रत्येक प्रश्न का उत्तर देता है, तुम भी एक प्रश्न का उत्तर दो ।"

मन्त्रियों ने कहा--"पूछिए ।"

राजा ने कहा---"देखो, यहाँ से अथवा बाहर से दो अबके ले आओ, दो तबके ले आओ और दो ऐसे ले आओ ो न तबके हों न अबके हों ।"

मन्त्रियों ने सोचा--राजा ने आज भाँग पी ली है । इसलिए ऐसी बहकी-बहकी बातें कर रहा है , अन्यथा इस प्रश्न का क्या अर्थ है ? बोले---"महाराज ! हमने प्रश्न ठीक से सुना नहीं, कृपया फिर से दुहरा दें ।"

महाराज बोले--"नहीं सुना, तो ध्यानपूर्वक सुन लो और बाहर जाकर  दो अबके ले आओ, दो तबके ले आओ और दो ऐसे ले आओ जो न तबके हों न अबके हों ।"
दरबारियों के पल्ले अब भी कुछ नहीं पडा ।

तभी राजसभा में बीरबल आ गए । महाराज को नमस्ते की । सबको मौन देखकर बोले---"महाराज ! ये सब लोग मौन क्यों हैं  ?"

महाराज बोले---"ये लोग तुमसे ईर्ष्या करते हैं, कहते हैं कि जिस प्रकार तुम प्रत्येक प्रश्न का उत्तर देते हो, उसी प्रकार ये भी दे सकते हैं । मैंने इनसे एक प्रश्न पूछा, उसका उत्तर इनसे नहीं सूझता ।"

बीरबल ने पूछा---"क्या प्रश्न था महाराज ?"

महाराज ने कहा---"मैंने इन्हें आदेश दिया था कि  दो अबके ले आओ, दो तबके ले आओ और दो ऐसे ले आओ जो न तबके हों न अबके हों ।"

बीरबल झुककर बोले---"श्रीमन् ! यह तो साधारण-सी बात है । मैं ला दूँगा ये सब-के-सब, परन्तु श्रीमान् आज्ञा दें तो कल उपस्थित कर दूँगा उन्हें ।"

महाराज ने कहा---"कल तक ही सही । परन्तु उन्हें उपस्थित करो अवश्य ।"

दूसरे दिन प्रातः बीरबल गए यमुना के तट पर--- इसी यमुना के किनारे जो दिल्ली के पास बहती है । अकबर उन दिनों यहीं थे । यमुना के किनारे कितने ही राजा-महाराजाओं के तम्बू लगे थे । दूर कुछ साधु भी अपनी धूनियाँ रमाए प्रभु-भजन में मग्न थे । बारबल ने दो राजाओं के पास जाकर कहा---"आपको महाराज अकबर ने बुलाया है, मेरे साथ चलो ।"

उस बाद दो साधुओं से प्रार्थना की---"महाराज ! अकबर आपका दर्शन करना चाहते हैं, कृपा करके मेरे साथ चलिए ।"

चारों को साथ लेकर बीरबल चाँदनी चौक में पहुँचे तो दो दुकानदारों को उठा लिया, बोले---"मेरे साथ चलो । महाराज की राजसभा में चलना होगा ।"

उन छः व्यक्तियों के साथ सभा में पहुँचे तो महाराज ने कहा---"बीरबल, हमारे प्रश्न का उत्तर मिल गया ?"

बीरबल बोले---"हाँ महाराज ! आपके प्रश्न का उत्तर मैं साथ लाया हूँ ।"

दरबारियों ने उन व्यक्तियों की ओर आश्चर्य से देखा कि ये राजा के प्रश्न का उत्तर कैसे हैं ? यह वे समझ नहीं सके । परन्तु बीरबल ने कहा---

"महाराज आपने कहा था,--"दो अबके ले आओ । ये दो राजा हैं, यहीं दो अब के हैं । पिछले जन्म में इन्होंने तप किया था, पुण्य किया था, उसका फल अब भोग रहे हैं । ये अब के हैं ।"

"ये दो साधु तबके हैं । आज ये तप कर रहे हैं, प्ऱबु-भजन करते हुए कष्ट सहन कर रहे हैं ष इन्हें सुख मिलेगा आगे चलकर । ये तब के हैं ।"

राजा ने शेष दो व्यक्तियों को देखकर पूछा---"और ये ?"

बीरबल ने कहा---"ये न तबके हैं, न अबके । ये न पहले तप कर पाये, न अब करते हैं । इनके लिए न आज सुख है, न भविष्य में होगा ।"

शिक्षा---हे भक्तजनों !!! अब तुम स्वयं सोच लो कि तुम इनमें से किससे सम्बन्धित हो । अबके हो, तबके हो, अथवा उनमें से हो जो न अब के हैं, न तब के । यदि अन्तिम बात है तो कृपा करके ऐसा न करो , प्रभु-कृपा प्राप्त करने का यत्न करो ।

यदि प्रभु की कृपा प्राप्त करनी है तो इन पाँच बातों पर ध्यान दो---

"नाविरतो दुष्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः ।
नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ।।"

 अर्थः--- जिसने दुश्चरित को त्याग नहीं दिया, जो इन्द्रियों के जाल में फँसा हुआ है, जिसका चित्त एकाग्र नहीं, जिसने अपनी तृष्णाओं व इच्छाओं को दबा नहीं दिया और जिसने इन्द्र (आत्मा) के ज्ञान को, आत्मिक ज्ञान को प्राप्त नहीं किया, उसे यह आत्मा कभी मिलता नहीं, उसपर भगवान् की कृपा भी होती नहीं ।

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काव्याञ्जलिः

!!!---: योगः समत्वम् उच्यते :---!!!
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(1.)
"युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ।।"
(गीता--6.17)

अर्थःः--जिसका आहार विहार युक्तियुक्त हो, जिसकी कर्म-चेष्टाएँ युक्तियुक्त हों । विशेषकर जिसका सोना तथा जागना युक्तियुक्त हो, उसीा के लिए योग-मार्ग दुःखनाशक सिद्ध होता है ।
(2.)
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ।।
(गीता--2.50)
अर्थः--हे अर्जुन, बुद्धियुक्त मनुष्य इस संसार में सुकृत और दुष्कृत दोनों प्रकार के कर्मों में आसक्ति को छोड देता है । इसलिए तू योग के लिए प्रयत्न कर । कर्मों में कौशल का नाम ही योग है ।

(3.)
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ।।
(गीता--9.22)

अर्थः----जो स्वर्गति अर्थात् भौतिक-सुख-भोग की अभिलाषा से नहीं, किन्तु मुझ से नित्य सम्बन्ध जोडने के लिए अनन्य होकर मेरा चिन्तन करते हैं तथा मेरे ही चारो ओर चक्कर काटते हैं, ऐसे नित्य निष्काम लोकसेवा में लगे हुए पुरुषों के योग-क्षेम की चिन्ता का भार मैं वहन करता हूँ, उन्हें नित्य आनन्द की प्राप्ति होती है तथा मैं उनका निवास हूँ, इसलिए योगक्षेम की चिन्ता ही क्या रही । किन्तु उनको भौतिक योगक्षेम भी मेरे द्वारा प्राप्त होता है कि वे सवन करें, लोकसेवा में नित्याभियुक्त हों तथा काम-कामाः न हों ।

(4.)
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ।।
(गीता---2.48)
अर्थः---हे अर्जुन, तू फल के फल में आसक्ति छोेडकर सिद्धि में आत्म-संयम द्वारा सिद्धि के समय में मद में न आ और धैर्य द्वारा असिद्धि के समय में निराशा में न आ । यह सम्पत्ति-विपत्ति में एकरस भाव से लक्ष्य की ओर बढना ही वह समत्व है, जिसे कहा---योगे त्विमां शृणु-----। बुद्ध्या युक्तो तथा पार्थ कर्मबन्ध प्रहास्यसि । (गीता---2.39)  इस योग-बुद्धि से योग  में स्थित होकर कर्म कर इसी समत्व का नाम योग है ।

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रविवार, 24 जनवरी 2016

अनासक्तः


!!!---: अनासक्तः :---!!!
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इस कथा को हिन्दी में पढने के लिए यहाँ क्लिक् करें---
http://laukiksanskrit.blogspot.in/2016/01/1_21.html


एकः नरपतिः राजकर्मभ्यः उद्विग्नः भूत्वा स्वगुरोः समीपे गतवान् निवेदितवान् च--

"भगवन् ! प्रजापालनात्मकं कर्म अतिकठिनं कष्टप्रदं च । प्रतिदिनम् अनेकाः विषमाः समस्याः उपस्थिताः भवन्ति । एकां समस्यां समादधामि, अपरा समुदेति । कार्येषु बहूनि विघ्नानि समुपस्थाय मम चेतः व्यग्रीकुर्वन्ति । अथ च जनानां मध्ये विवादानां निर्णये, जनहितयोजनानां च क्रियान्वयने व्यासक्तचित्तः अहम् उद्विग्नताम् अनुभवामि । नानाचिन्ताः क्लेशयन्ति । निद्रा अपि रूष्टा भूत्वा क्वचिद् विलीना । किं करोमि ? क्व गच्छामि ? किं राज्यं परित्यजानि ? भवान् एव मम मार्गदर्शनं करोतु ।"

गुरुः अभ्यधात्--"राजन् ! यदि खेदं वहसि, राज्यं परित्यज किन्तु योग्यस्य प्रशासकस्य अभावे सर्वत्र असन्तोषः अनवस्था च समुदेष्यतः । भवान् राज्यभारं पुत्राय किं न प्रयच्छति ?"

राजा अवदत्. पुत्रस्तु बाल्ये वयसि वर्त्तमानः राज्यभारवाहने असमर्थः । भवान् कञ्चिद् अन्यम् उपायं निर्दिशतु ।

क्षणं विचार्य गुरुः अवादीत्, "यदि तव सम्मतं स्यात्, मह्यम् समर्प्यतां राज्यम् ।"

राजा सहर्षम् उवाच, "भवता तु मम सर्वा चिन्ता निराकृता । दत्तं मया भवते राज्यम् ।"

गुरुः पुनः तम् अपृच्छत् ---"सम्प्रति किं करिष्यति भवान् ।"

राजा अवदत्, "अहं किञ्चिन्मात्रं धनम् आदाय वने तपः चरिष्यामि ।"

गुरुः विहस्य अवदत्, राज्येन सह राजकोषे अपि ममाधिकारः जातः । अतः धनम् आदातुं नार्हसि ।"

राजा प्रत्यवदत्---"अहं सेवाकार्यं कृत्वा धनम् आप्स्यामि ।"

गुरुः उवाच---"यदि सेवा एव करणीया, तदा मम प्रतिनिधिः भूत्वा राज्यं शाधि । किन्तु एतत् सम्यक् अवधारयेः, यत् राज्ये तवाधिकारः नास्ति । त्वं केवलं मम प्रातिनिध्यं वहसि ।"

राजा गुरोः वचनं शिरसा प्रधार्य तस्माद् आशिषः च स्वीकृत्य प्रतिनिवृत्तः, राज्यं च शशास ।

मासान्ते पुनः गुरुणा पृष्टः अवदत्--"सम्प्रति सर्वं कार्यम् अक्लेशेन सम्पादयामि । काsपि चिन्ता मां न दुनोति । रात्रौ प्रगाढनिद्रासुखम् आसादयामि । सम्प्रति नाहम् आत्मानं राजानं मन्ये, केवलं प्रतिनिधि मत्वा कर्माणि सम्पादये । अतः मम आसक्तिः विगता । भूयोsहं भवताम् उपकारभरं शिरसा वहामि ।"



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गुरुवार, 21 जनवरी 2016

जो कुछ है सब तोर




!!!---: जो कुछ है सब तोर :---!!!
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इस कथा में संस्कृत में पढें--- http://laukiksanskrit.blogspot.in/2016/01/www_24.html
एक था राजा । बडे परिश्रम से राज्य करता था । बहुत ध्यान रखता था प्रजा का । परन्तु ध्यान करते हुए भी थक जाता था । अन्त में दुःखी होकर वह अपने गुरु के पास गया । गुरुजी एक वन में एक वृक्ष के नीचे रहते थे ।

उनके पास जाकर बोला---"गुरुदेव ! मैं इस राज्य के झंझटों से , इसकी समस्याओं से , इसकी उलझनों से दुःखी हो गया हूँ । एक समस्या को हल करता हूँ तो दूसरी आकर खडी हो जाती है, दूसरी को सुलझाता हूँ तो तीसरी आ जाती है । नित्य नई उलझन, नित्य नए झगडे । मैं तो दुःखी हो गया हूँ इस जीवन से, क्या करूँ ?"

गुरुजी ने कहा---"राजन् ! ऐसी बात है तो छोड दे इस राज्य को ।"

राजा ने कहा---- "कैसे छोडूँ ? राज्य छोड देने से इसकी समस्याएँ सुलझ नहीं जाएँगी । सब-कुछ तितर-बितर हो जाएगा । अराजकता फैल जायेगी चहुँ ओर ।"

गुरुजी ने कहा--"बहुत अच्छा, अपने पुत्र को राज्य दे दे । तू मेरे पास आकर रह, जैसा मैं रहता हूँ, वैसे ही निश्चिन्त होकर रह ।"

राजा ने कहा---"परन्तु मेरा पुत्र तो अभी छोटा-सा बच्चा है, वह इस भार को सँभालेगा कैसे ?"

गुरुजी ने कहा---"बहुत अच्छा, तो फिर तू अपना राज्य मुझे दे दे, मैं चलाऊँगा उसे ।"

राजा ने कहा---"यह मुझे स्वीकार है ।"

गुरुदेव ने कहा----"तो हाथ में पानी लेकर संकल्प कर । सारा राज्य मुझे दान कर दे ।"

राजा ने ऐसा ही किया और उठकर चल पडा ।

गुरुजी ने पूछा---"अब कहाँ जा रहे हो ?"

राजा ने कहा---"कोष से कुछ रुपया लेकर किसी दूसरे देश में जाऊँगा । वहाँ व्यापार करके जीवन व्यतीत करूँगा ।"

गुरुजी ने हँसते हुए कहा---"राज्य मुझे दे दिया तो कोष भी मेरा ही हो गया । अब उस पर तेरा क्या अधिकार है ?"

राजा ने सिर झुकाकर कहा----"वास्तव में कोई अधिकार नहीं । राज्य में मैं वापस नहीं जाऊँगा ।"

गुरुजी ने पूछा---"तो फिर क्या करेगा ?"

राजा बोला---"कहीं जाकर नौकरी करूँगा ।"

गुरुजी बोले---"यदि नौकरी ही करनी है तो मेरी ही कर ले । इतना बडा राज्य है मेरे पास । उसे चलाने के लिए किसी-न-किसी को तो रखना ही पडेगा । तू ही यह काम कर । मुझे सेवक की आवश्यकता है, तुझे सेवा की । बोल---यह काम करेगा ?"

राजा ने सोचते हुए कहा---"करूँगा ।"

गुरुजी बोले---"तो जा, आज से मेरा सेवक बनकर राज्य को चला । वहाँ कुछ भी तेरा नहीं । भला हो, बुरा हो, हानि हो, लाभ हो, सब मेरा होगा । तुझे केवल वेतन मिलेगा ।"

राजा ने इस बात को स्वीकार कर लिया । वापस आकर राज्य चलाने लगा । कोई एक मास के बाद गुरुजी ने आकर पूछा---"कहो भाई, अब इस राज्य को चलाने में कैसा लगता है ? अब भी दुःखी हो क्या , अब भी क्या जीवन संकटमय लगता है क्या ?'

राजा ने कहा---'नहीं महाराज ! अब इसमें मेरा क्या है मैं तो नौकरी करता हूँ---पूरे ध्यान से, परिश्रम से करता हूँ और फिर रात को निश्चिन्त होकर सोता हूँ ।"

शिक्षा----

तो सुनो भाई, यह है वह साधन, जिसको अपनाने के पश्चात् मनुष्य कर्म करता हुआ भी उसमें लिप्त नहीं होता । अपने-आपको स्वामी न समझो , सेवक समझो । यह सब-कुछ तुम्हारा है ही नहीं । तुम केवल अपना कर्त्तव्य पालन करने के लिए आए हो । उसे पूर्ण करो और चलो जाओ ।

"मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है सब तोर ।
तेरा तुझको सौंपते, क्या लागत है मोर ।।"


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(3.) ज्ञानोदय
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(4.) नीतिदर्पण
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(5.) भाषाणां जननी संस्कृत भाषा
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(6.) शिशु संस्कृतम्
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(7.) संस्कृत प्रश्नमञ्च
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(8.) भारतीय महापुरुष
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