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एक महात्मा के आशीर्वाद से किसी सेठ की कोई कामना पूरी हो गई । कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए उसने एक दिन महात्मा के पास पहुँचकर उनकी चरण वन्दना की । कुछ देर बाद एक थैला निकालकर महात्मा को अर्पित करते हुए बोला---"गुरुवर !!! मैं श्रद्धावश कुछ धन आपको समर्पित कर रहा हूँ, कृपया मेरी तुच्छ भेंट स्वीकार करें ।"
महात्मा ने बडी शालीनता से कहा---"वत्स !!!! मैं यह धन लेकर क्या करूँगा ??? यह धन मेरे कोई काम आने वाला नहीं है ।"
जब सेठ का आग्रह अधिक होने लगा तो महात्मा ने कहा---"मैं निर्धनों से दान नहीं लेता ।"
अचम्भित सेठ ने कहा---"मैं निर्धन नहीं हूँ । आपके आशीर्वाद से लाखों रुपयों और सोने-चाँदी से मेरी तिजोरियाँ भरी हुई हैं ।"
अच्छा !!!! तो क्या तुम अपनी इस धन-सम्पत्ति से अब पूर्ण सन्तुष्ट हो ??? अब और अधिक धन-प्राप्ति की तुम्हें इच्छा नहीं है ???"
महात्मा के इस प्रश्न के प्रत्युत्तर में सेठ बोला----"महात्मन् !!!! अपनी इस सम्पत्ति को मैं दिन-दुगुनी, रात-चौगुनी करना चाहता हूँ । इसलिए मैं दिन-रात भागदौड में रहता हूँ ।"
इस पर महात्मा बोले---"अर्थात् तुम अभी भी अतृप्त हो । अतृप्त व्यक्ति ही तो निर्धन होता है ।"
सेठ को महात्मा की बात का मर्म समझ में आ गया ।
कथा-मञ्जरी
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