!!!---: चाणक्य-नीति :---!!!
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"शान्तितुल्यं तपो नास्ति न सन्तोषात् परं सुखम् ।
न तृष्णायाः परो व्याधिर्न च धर्मो दयापरः ।।"
अर्थः----शान्ति के समान कोई तप नहीं है , सन्तोष से बढकर कोई सुख नहीं है । तृष्णा से बढकर कोई रोग नहीं है और दया से ऊपर कोई धर्म नहीं है ।
वस्तुतः तप शान्ति के लिए ही किया जाता है । यदि व्यक्ति के अन्दर पहले से ही शान्ति है तो उसे तप की क्या आवश्यकता । यदि उसका उसके वश में है तो तप की कोई आवश्यकता नहीं । वह जब चाहे ईश्वर से मिल सकता है ।
अपार धन होने पर भी कई बार व्यक्ति सुखी नहीं होता, दुःखी देखा जाता है । यदि मन में सन्तुष्टि है तो कुछ पैसे में काम चल जाता है और मन में सन्तुष्टि न हो तो बहुत धन के आ जाने पर भी सुख नहीं मिलता है । एक राजा और एक साधु बराबर हो सकते हैं, यदि फटी गुदडी में साधु खुश है और रेशम के वस्त्रों में राजा प्रसन्न है तो दोनों बराबर है ।
तृष्णा कहते हैं चाहत को । व्यक्ति के पास कितना भी धन आ जाए, किन्तु चाहत समाप्त नहीं होती तो यह चाहत उसके लिए एक रोग के समान है । ऐसा व्यक्ति कभी स्वस्थ नहीं हो सकता । जैसे-जैसे उसकी तृष्णा बढेगी, वैसे-वैसे वह रोगी होता जाएगा । एक दिन वह इसी से मर भी जाएगा ।
यदि आपके अन्दर किसी भी प्राणी के प्रति दया है तो कुछ और करने की आवश्यकता नहीं । क्योंकि आप सबसे बडे धार्मिक है । वस्तुतः धर्म के मूल में भी दया ही है । यदि आपके अन्दर दया पहले से वर्त्तमान है तो दिखावे के ढोंग और पाखण्ड करने की कोई आवश्यकता नहीं ।
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"शान्तितुल्यं तपो नास्ति न सन्तोषात् परं सुखम् ।
न तृष्णायाः परो व्याधिर्न च धर्मो दयापरः ।।"
अर्थः----शान्ति के समान कोई तप नहीं है , सन्तोष से बढकर कोई सुख नहीं है । तृष्णा से बढकर कोई रोग नहीं है और दया से ऊपर कोई धर्म नहीं है ।
वस्तुतः तप शान्ति के लिए ही किया जाता है । यदि व्यक्ति के अन्दर पहले से ही शान्ति है तो उसे तप की क्या आवश्यकता । यदि उसका उसके वश में है तो तप की कोई आवश्यकता नहीं । वह जब चाहे ईश्वर से मिल सकता है ।
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