!!!---: सुभाषितम् :---!!!
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"धनेन किं यो न ददाति न नाश्नुते
बलेन किं यश्च रिपून न बाधते ।
श्रुतेन किं यो न च धर्ममाचरेत्
किमात्मना यो न जितेन्द्रियो भवेत् ।।"
अर्थः----उस धन का क्या लाभ, जिसका उपभोग न स्वयं करता है और न दूसरों को देता है ।
उस बल का क्या लाभ जिससे शत्रुओं को रोक नहीं सकता और निर्बलों की रक्षा नहीं कर सकता ।
उस सुने हुए वेद का क्या जिससे व्यक्ति धर्म का आचरण नहीं करता , उसका वेद का पढना और जानना व्यर्थ है ।
उस आत्मा का क्या लाभ , जिसने अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त न की हो ।
यहाँ पर नकारात्मक भाव से बात की गई है, जिसका विपरीत प्रभाव सकारात्मक है ।
श्रीकृष्ण ने गीता में धन की तीन गतियाँ बताई हैं---उपभोग करना, दान करना इन दोनों की अनुपस्थिति में धन नष्ट हो जाता है । धन का स्वयं उपभोग करो, नहीं तो दान करो , अन्यथा यह नष्ट हो जाएगा । न तेरे काम का न मेरे काम का । जितने भी काला धन विदेश में जमा है । जिसने जमा किया है, वह स्वयं भी उपभोग नहीं कर रहा और न वापस लाकर देश को दे रहा है, उसने किसी को बताया भी नहीं । उसके मरने के बाद वह धन विदेश का ही हो गया ।
बली होने का सबसे बडा लाभ निर्बलों की रक्षा करनी है , अन्यथा बलवान् तो पशु भी होते हैं, सिंह भी होता है । तो पशु मनुष्य में क्या अन्तर । इसलिए बल होने पर निर्बलों को सताओ मत, बल्कि उसती रक्षा करो ।
यदि वेद को जानते हो और उसका श्रवण करते हो तो उस पर आचरण भी करो, अन्यथा वेद का विद्वान् तो राक्षसराज रावण भी था, किन्तु उसने अपने बुरे व्यवहारों से स्वयं का और कुल का भी नाश करवा लिया ।
मनुष्य वही है जिसने अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त की हो । वही व्यक्ति जीता भी है ।
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सुभाषितम्
जवाब देंहटाएं!!!---: *संस्कृत सुभाषितम्* :---!!!
यदि देहं पृथक् कृत्य
चिति विश्राम्य तिष्ठसि।
अधुनैव सुखी शान्तो
बन्धमुक्तो भविष्यसि
अर्थात :
यदि आप स्वयं को इस शरीर से अलग करके, चेतना में विश्राम करें तो तत्काल ही सुख, शांति और बंधन मुक्त अवस्था को प्राप्त होंगे॥४॥
*ध्यान अर्थात मरण*। नाशवंत संसार में अंधकारमय क्षय युक्त जीवन से मुक्त मोक्षदायिनी शाश्वत ईश्वर का शरण। ईश्वर अंश जीव अविनाशी का जन्म अर्थात नश्वर देह आधार। जबतक जीव को यह बोध है, तबतक उसे *स्वयं अनुभव रुप प्रकाश शाश्वत मस्तिष्क में सदा से स्थिर आत्म अनुभूति नहीं होती जींस के परीणाम स्वरुप वह सदा परावलंबी जीवन व्यतीत करने पर मजबूर रहता है।* वास्तविक अनुभव करे के जीव के जीवन को चलाने हेतु प्राणों की आवश्यकता मां के स्तनों के दूधकी शूरुआत से लेकरके आखरी तक अन्न चाहिए ही चाहिए। आँखो की रोशनी परावलंबी, शब्द, स्पर्श, रुप, रस गंध सारा कुछ परावलंबी मनुष्य का जन्म भी होता है एक-दूसरे के आधार परावलंबी। *बस एक मृत्यु ही ऐसा* है जो *स्वावलंबी हो सकता है* और वह भी *बिना शरीर* *का त्याग कीए*। *अबोध बालक की स्थिति वाले* *जन्मको सफल करने की कुंजी ध्यान ही है।*
*ध्यान मरण है जीते-जी शाश्वत ईश्वर स्मरण का* *समर्पण।* यही एक युक्ति से मुक्ति का लाभ दिया जा सकता है अबोध मन से संचालित नश्वर देह से नाशवंत संसार में अंधकारमय जीवन व्यतीत करने पर मजबूर व्यवहार से परमार्थ जाने की कुंजी भी और वर्तमान जीवन भी ध्यान ही है। *वर्तमान हि जीवन है* और यह अनुभूति मनुष्य को तब भी नहीं होती जब हकीकत में मरणा अवस्था तैयार हो और दूसरे पल नश्वर देह का नाशवंत संसार आधार जीवन समाप्त होने वाला हो। शुभ सवार सुस्वागतम अजन्मा स्थिति को प्राप्त करने योग्य योग्यता के लिए। धन्यवाद आप सभी सज्जन पुरुष बनाम स्त्री शरीर नश्वर देह धारी ईश्वर अंश अविनाशी जीवों का 🙏☝✍🙏
*तत्वज्ञान आधार स्वयं*
" गु " का अर्थ हैं -- गुणातीत
" रू " का अर्थ हैं -- रूपातीत
" गुकारं" प्राकृतगुणातीतं
" रूकारं" अशुद्धमायारूपातीतम्
मंजिल मिले या तजुर्बा, चीजें दोनों ही नायाब है !!
अहम् ब्रह्मास्मि...ब्राह्मण ...I am DIVINE BRAIN...
मेरी अपनी अभी कोई पहचान नहीं है क्योंकि मैं आत्म-केन्द्रित,एकांत-प्रिय और प्रतिस्पर्धाओं से दूर रहना पसंद करता रहा हूँ.
*जो पढ़ा, सुना व गुना !*
*खुद में ही खुद को पाना है*
*जो नहीं है उससे हम भयभीत रहते हैं, जो सदा है उससे अनभिज्ञ ही बने रहते हैं. सारा जीवन निकल जाता है पर चेतना का स्पर्श नहीं हो पाता, और मन जो होकर भी नहीं है हमें भगाता रहता है. इसीलिए मन रूपी संसार को शंकर माया कहते हैं. मन अँधेरे की तरह है, जिसका आरम्भ कब से है पता नहीं, पर प्रकाश जलते ही उसका अंत हो सकता है, आत्मा सदा से है उसका अंत नहीं होता.* *आखिर हम आत्मा से अपरिचित* *क्यों रहते हैं, क्योंकि हम पल भर भी खुद में टिककर* *नहीं बैठते.*
आत्मा, डायरी के पन्नों से, भयभीत, मन, संसार
*उसी टर्निंग पॉइंट के आते ही ज़िंदगी रोशन हो जाती* *है*।*वाह ! कितना अद्भुत अनुभव*..बधाई !
आनन्द - दायक अनुभूति - विचार । सुन्दर - प्रस्तुति ।