सोमवार, 25 जनवरी 2016

काव्याञ्जलिः

!!!---: योगः समत्वम् उच्यते :---!!!
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(1.)
"युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ।।"
(गीता--6.17)

अर्थःः--जिसका आहार विहार युक्तियुक्त हो, जिसकी कर्म-चेष्टाएँ युक्तियुक्त हों । विशेषकर जिसका सोना तथा जागना युक्तियुक्त हो, उसीा के लिए योग-मार्ग दुःखनाशक सिद्ध होता है ।
(2.)
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ।।
(गीता--2.50)
अर्थः--हे अर्जुन, बुद्धियुक्त मनुष्य इस संसार में सुकृत और दुष्कृत दोनों प्रकार के कर्मों में आसक्ति को छोड देता है । इसलिए तू योग के लिए प्रयत्न कर । कर्मों में कौशल का नाम ही योग है ।

(3.)
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ।।
(गीता--9.22)

अर्थः----जो स्वर्गति अर्थात् भौतिक-सुख-भोग की अभिलाषा से नहीं, किन्तु मुझ से नित्य सम्बन्ध जोडने के लिए अनन्य होकर मेरा चिन्तन करते हैं तथा मेरे ही चारो ओर चक्कर काटते हैं, ऐसे नित्य निष्काम लोकसेवा में लगे हुए पुरुषों के योग-क्षेम की चिन्ता का भार मैं वहन करता हूँ, उन्हें नित्य आनन्द की प्राप्ति होती है तथा मैं उनका निवास हूँ, इसलिए योगक्षेम की चिन्ता ही क्या रही । किन्तु उनको भौतिक योगक्षेम भी मेरे द्वारा प्राप्त होता है कि वे सवन करें, लोकसेवा में नित्याभियुक्त हों तथा काम-कामाः न हों ।

(4.)
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ।।
(गीता---2.48)
अर्थः---हे अर्जुन, तू फल के फल में आसक्ति छोेडकर सिद्धि में आत्म-संयम द्वारा सिद्धि के समय में मद में न आ और धैर्य द्वारा असिद्धि के समय में निराशा में न आ । यह सम्पत्ति-विपत्ति में एकरस भाव से लक्ष्य की ओर बढना ही वह समत्व है, जिसे कहा---योगे त्विमां शृणु-----। बुद्ध्या युक्तो तथा पार्थ कर्मबन्ध प्रहास्यसि । (गीता---2.39)  इस योग-बुद्धि से योग  में स्थित होकर कर्म कर इसी समत्व का नाम योग है ।

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