शनिवार, 13 फ़रवरी 2016

जल का महत्त्व, लक्षण

!!!---: जल का महत्त्व और लक्षण :---!!!
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इस लेख में सभी प्रकार के जल का निरीक्षण और परीक्षण किया जाएगा । इसके लक्षण बतायें जाएँगे । भारतीय मनीषियों ने जितनी खोज की है, आधुनिक डॉक्टर उसका 20 प्रतिशत भी नहीं कर पाएँ हैं । यह लेख बडा अवश्य है, किन्तु जल का सम्पूर्ण वर्णन भी है ।

जल को जीवन कहा गया है । यह प्राणिमात्र का प्राण है । इसीलिए जल का पर्याय "जीवन" बन गया है । समस्त संसार को परमात्मा ने जलमय बनाया है ।

गंगा का जलः-----

"जीवनं तर्पणं हृद्यं ह्रादि बुद्धिप्रबोधनम् । तन्वव्यक्तरसं मृष्टं शीतं लघ्वमृतोपमम् ।।
गंगाम्बु नभसो भ्रष्टं स्पृष्टं त्वर्केन्दुमारुतैः । हिताहितत्वे तद्भूयो देशकालावपेक्षते ।।"
(अष्टांगहृदयम्--5.1-2)
आकाश से गिरा हुआ गंगा का जल जीवन , तर्पण, हृदय के लिए हितकारी, आनन्दायक, बुद्धि को बढाने वाला, तनु , अव्यक्त रस , मृष्ट, शीतल, हलका और अमृत के समान हितकर होता है । यह जल आकाश से गिरने के बाद सूर्य, चन्द्र तथा वायु के स्पर्श  से देश एवं काल के प्रभाव से हितकर भी हो सकता है और अहितकर भी हो सकता है , अर्थात् जैसे देशकाल का उसमें प्रभाव पडेगा, तदनुरूप भला या बुरा बो जाता है ।

वैद्य चरक ने भी कहा हैः---"शीतं शुचि शिवं मृष्टं विमलं लघु षड्गुणम् । प्रकृत्या दिव्यमुदकम् ।।" (च.सू. 27.198)

गंगाजल का परिचयः----

"येनाभिवृष्टममलं शाल्यन्नं राजते स्थितम् । अक्लिन्नमविवर्ण च तत्पेयं गांगम्------।।"

जिस जल के बरसते समय घर के भीतर चाँदी के पात्र में परोसा हुआ शाल-चावलों का भात निर्मल बना रहे, वह क्लेदयुक्त न हो , अर्थात् पसीजने न लगे और उसका वर्ण विकारयुक्त न हो जाए, वह गंगा का जल होता है, इसे पीना चाहिए ।

समुद्र का जलः---
"अन्यथा सामुद्रं, तन्न पातव्यं मासादाश्वयुजाद्विना ।।" (अ.हृ.5.3)

उपर्युक्त गंगाजल के विपरीत जो जल होता है, उसे समुद्र का जल कहते हैं । वह पीने के योग्य नहीं होता है ।  यह जल आश्विन मास में पीने योग्य हो जाता है ।।

वैद्य चरक के अनुसार आकाश से मेघ की सहायता से बरसने वाले सभी जल एक समान होते हैं । परन्तु जब वे गिरते हैं और गिरकर जिस प्रकार के देश में तथा जिस काल में गिरकर स्थित होते हैं, तदनुसार उन जलों के गुण हो जाते हैं । (च.सू. 27.196)

प्रधान जलः---जो जल इन्द्र (मेघ) द्वारा उत्पन्न हुआ आकाश से गिरता है और स्वच्छ पात्रों में संग्रह कर लिया जाता है, उसे ही विवेकशील विद्वान् "ऐन्द्र"  जल कहते हैं । वही जल राजाओं अथवा श्रीमानों के पीने योग्य होता है । यह जल प्रायः आश्विन मास में ग्रहण किया जाता है । (च.सू. 27.202)

धन्वन्तरि के अनुसार जल दो प्रकार का होता हैः---(1.) गंगा का जल (2.) समुद्र का जल । इनमें गंगा का जल प्रायः आश्विन मास में बरसता है । इन दोनों जलों की परीक्षा करनी चाहिए । जिस समय पानी बरस रहा हो, उस समय पकाए हुए चावलों के गले हुए अविवर्ण (जिसका स्वाभाविक रंग विकृत न हुआ हो) एक पिण्ड को चाँदी की थाली में रख दें । यदि 4-5 घण्टे में भी वह पिण्ड उसी प्रकार अविकृत रहता हो, तो समझे इस समय गंगा का जल बरस रहा है । यदि उस भात के पिण्ड का रंग बदल जाए, उसमें कुछ सडन के लक्षण दिखाई दें, कुछ गंदलापन दिखाई दे, तो समझना चाहिए कि इस समय समुद्र का जल बरस रहा है । सामुद्र जल को आश्विन मास में ग्रहण किया जा सकता है । (सु.सू- 45.7)

स्पष्टीकरणः----

समुद्र का जलः--- समुद्री जल को ही सामुद्र जल कहते हैं । मानसुन द्वारा उठे हुए बादलों से जो जल बरसता है, उसे समुद्र का जल कहा जाता है ।

गंगाजलः--- जितनी भी तेज बहने वाली नदियाँ हैं, उन सबका नाम गंगा है । क्योंकि गंगा उसे कहते हैं, जिसमें निरन्तर प्रवाह (बहाव) हो ।

निष्कर्षः---गंगा का जल पीने योग्य (हितकर) होता है और समुद्र का जल पीने योग्य नहीं होता है , भले ही वह नमकीन न हो । अतः आश्विन मास से ज्येष्ठ मास तक जो वर्षा का जल होता है, वह पानीय (पीने योग्य) होता है, शेष महीनों में बरसने वाला जल सामान्यतः अपेय होता है ।

पानीय जलः---""""""""""
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